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Sanwaliyaji's History
श्री सांवलिया जी की प्रतिमाओं का प्रकटीकरण :-  
सन 1840 में तत्कालीन मेवाड राज्य के समय उदयपुर से चित्तोड़ जाने के लिए बनने वाली कच्ची सड़क के निर्माण में बागुन्ड गाँव में बाधा बन रहे बबूल के बृक्ष को काटकर खोदने पर वहा से भगवान् कृष्ण की सांवलिया स्वरुप तीन प्रतिमाएं निकली।

किवंदती के अनुसार ये मुर्तिया नागा साधुओं द्वारा अभिमंत्रित थी जिनको आक्रमणकारियों के डर से यहाँ जमीन में छिपा दिया गया। कालान्तर में वहा बबूल का एक वृक्ष बना। वृक्ष की जड़ निकालते समय वहां भूगर्भ में छिपे श्री सांवलियाजी की सुंदर एवम मनमोहक तीन प्रतिमाएं एक साथ देखकर मजदूर व स्थानीय व्यक्ति बड़े आनंदित हुए।

भादसोड़ा में सुथार जाति के अत्यंत ही प्रसिद्ध गृहस्थ संत पुराजी भगत रहते थे। उनके निर्देशन में इन मूर्तियों की सार संभाल की गयी तथा उन्हें सुरक्षित रखा गया। एक मूर्ति भादसोड़ा गाँव ले जाई गयी जहाँ भींडर ठिकाने की और से भगतजी के निर्देशन में सांवलिया जी का मंदिर बनवाया गया। दूसरी मूर्ति मण्डफिया गाँव ले जाई गयी वहा भी सांवलियाजी मंदिर बना कालांतर में जिसकी ख्याति भी दूर-दूर तक फेली। आज भी वहा दूर-दूर से हजारों यात्री प्रति वर्ष दर्शन करने आते हैं।

श्री सांवलिया जी प्राकट्य स्थल
 
इस स्थान के पास ही भादसोड़ा गाँव है जिसका 1000 साल से भी पुराना इतिहास है। अजमेर व देहली के शासक वीर पृथ्वीराज चौहान की बहन पृथा का विवाह चित्तोड़ के राणा समर सिंह के साथ हुआ था। विवाह के बाद पृथा के साथ दासियाँ व चारण सरदार चित्तोड़ आ गए जिन्हें राणा समरसिंह ने 12 गाँव जागीर में दिए थे। इन गावों में भादसोड़ा गाँव भी शामिल था।
 
प्राकट्य स्थल मंदिर का निर्माण :-

निर्माणाधीन मंदिर - प्रथम चरण
संयोग की बात है कि भादसोड़ा एवं मण्डफिया में मंदिर बनने के बाद भी प्रतिमाओं का मूल उदगम स्थान अविकसित ही रहा। इस जगह एक चबूतरे पर 5'x4' आकर का नन्हा सा मंदिर वर्षों तक अनचीन्हा रहा। 1961 में श्री सांवलिया जी प्रेरणा पाकर श्री मोतीलालजी मेहता, अपने सहयोगियों स्व. सर्वश्री दीपचंदजी तलेसरा, श्री डाडमचन्दजी चोरडिया, श्री नारायणजी सोनी व श्री मिट्ठालालजी ओझा के साथ इस कार्य में पूरी तरह लग गए। वह समय आर्थिक दृष्टि से बहुत कठिनाई का था। लोगों को रूपया आसानी से उपलब्ध नहीं होता था पर मेहताजी ने हार नहीं मानी। उस समय जिससे जो बन पड़ा उससे वह लिया गया, पत्थर विक्रेताओं से पत्थर दान में लिए, छत के लिए पट्टीवालों से पट्टीया लीं।

दान में किसी ने अपनी बैलगाडी से मंदिर निर्माण सामग्री ढोई। मजदूरों व कारीगरों ने भी यथा संभव अपना श्रम व कौशल दान में दिया। बंजारा समाज ने छोटी सराय हेतु पैसा दिया। आपसी समझोते से यदि मेहताजी कोई सामाजिक या पारिवारिक झगडा निपटाते तो उभय पक्षों से मंदिर निर्माण हेतु भंडार में पैसा अवश्य डलवाते।

शनै-शनै प्राकट्य स्थल मंदिर आकर लेने लगा. भविष्य को ध्यान में रखते हुए मंदिर के धरातल को 12 फुट ऊँचा बनाया गया। 1978 में विशाल जनसमूह की उपस्थिति में मंदिर पर ध्वजारोहण किया गया।


निर्माणाधीन मंदिर - द्वितीय चरण
1961 से मंदिर के निर्माण,विस्तार व सोंदर्यकरण का जो कार्य शुरू हुआ है,वह आज तक चालू है। राष्ट्रीय राजमार्ग पर इस स्थल पर अब एक अत्यंत ही नयनाभिराम एवं विशाल मंदिर बन चूका है। 36 फुट ऊँचा एक विशाल शिखर बनाया गया है जिस पर फरवरी,2011 में स्वर्णजडित कलश व ध्वजारोहण किया गया।

मंदिर की छत पर सुन्दर चित्रकारी, बरामदों में विभिन्न देवी-देवताओं से की नयनाभिराम मूर्तियाँ लगाई जा रही है।
बरामदों की दीवारों पर भी सुन्दर चित्रकारी का कार्य करवाया जा रहा है। मंदिर में नयनाभिराम जड़ाई (In-Lay) का काम किया गया है। यह अप्रैल २०१३ तक पूरा होना प्रस्तावित है।
 
 
देवझूलनी एकादशी मेला :-
1961 से मंदिर के शिलान्यास पूर्व से ही इस पवित्र स्थल पर देवझूलनी एकादशी पर विशाल मेले का आयोजन किया गया। यह व्यवस्था आज भी बनी हुयी है। प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष की दशमी, एकादशी व द्वादशी को 3 दिवसीय विशाल मेले का आयोजन किया जाता है।

एकादशी के दिन भादसोड़ा व बागुंड से भगवान के बाल रूप की शोभा यात्रा निकली जाती है , इसमे हजारों धर्मप्रेमी उल्लास के साथ भाग लेते है। दोनों शोभायात्राएं प्राकट्य स्थल मंदिर पहुँचने के बाद एक विशाल जुलुस में परिवर्तित हो जाती है। फिर यहाँ पर भगवान को स्नान कराया जाता है।
   
शोभायात्राओं का संगम भगवान को स्नान कराते पुजारी जी
 

शोभायात्रा  
 
 
दानपात्र भेंट राशी एवं महाप्रसाद वितरण:-

दानपात्र (भंडार ) राशी की गणना
हिंदी पंचाग के हर महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को सांवलियाजी का दानपात्र(भंडार) खोला जाता है. अगले दिन यानी अमावस्या को शाम को महाप्रसाद का वितरण किया जाता है।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

 
   
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